अपने अधिकारों के दायरे में श्रमिक
कल्याणकारी सेवाओं में प्रमुख भूमिका होने के बावजूद योजनाओं में काम करने वाले श्रमिक अपने अधिकारों को लेकर अब भी संघर्षरत हैं
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फरवरी महीने में महाराष्ट्र ने दो लाख आंगनबाड़ी श्रमिकों ने अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन किया. बिहार में मिडडे मील योजना के तहत काम करने वाले रसोइयों ने भी अपनी तनख्वाह में बढ़ोतरी की मांग को लेकर जनवरी में हड़ताल की. इन योजनाओं में काम करने वाले लोग ही सरकार की कल्याणकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने का काम करते हैं. यह विडंबना ही है कि इन लोगों की अपनी मांगों को मनवाने के लिए हड़ताल पर जाना पड़ता है. इसके बावजूद उनकी मांगों को आंशिक तौर पर ही माना जाता है.
पूरे भारत में इन योजनाओं में काम करने वाले लोग स्वास्थ्य, सेवा और पोषण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. वाॅलिंटियर माने जाने वाले इन लोगों को कम पैसे मिलते हैं और इन पर काम का काफी बोझ रहता है. सरकारी कर्मचारियों को जो सुविधाएं मिलती हैं, वे भी इन्हें नहीं मिलतीं. 27 लाख आंगनबाड़ी श्रमिक और सहयोगी एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम के तहत काम कर रहे हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वाली तकरीबन दस लाख मान्यता प्राप्त आशा कार्यकर्ताएं और शहरी स्वास्थ्य कार्यकर्ताएं हैं. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत तीन लाख नर्सें काम करती हैं. राष्ट्रीय बाल मजदूर परियोजना, लघु बचत योजनाएं, सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार मिशन के तहत भी लाखों ऐसे लोग काम कर रहे हैं.
इनमें अधिकांश महिलाएं हैं. इनके कामों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हाशिये के लोगों के कल्याण में ये मुख्य भूमिका निभाती हैं. ये लोग गर्भवती महिलाओं, बच्चों, बीमार लोगों और कुपोषितों के ‘चेहरे’ और ‘हाथ’ हैं. इनके संगठन बताते हैं कि काम के बोझ के बावजूद उन पर सरकारी सर्वेक्षण और आंकड़े जुटाने के काम का दबाव भी रहता है. विभिन्न योजनाओं के बजट में कटौती से इन श्रमिकों की असुरक्षाओं और जिम्मेदारियां दोनों में बढ़ोतरी हुई है. लेकिन इन लोगों के कामों को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकार ये यह उम्मीद की जा सकती है कि इन्हें बेहतर तनख्वाह और कामकाजी परिस्थितियां मुहैया कराई जाएंगी.
लेकिन ये उम्मीदें नहीं पूरी हो रही हैं. महाराष्ट्र में जो आंगनबाड़ी कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे थे, उन पर वहां की सरकार ने अनिवार्य सेवाओं से संबंधित कानून लगा दिया. सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन बिहार में जब मिडडे मील योजनाओं के तहत काम कर रहे 2.48 लाख रसोइयों ने हड़ताल किया तो लाखों बच्चों के प्रभावित होने के बावजूद इसे 39 दिनों तक चलने दिया गया. इसके बाद इनके मेहनताने में मामूली बढ़ोतरी की गई. आंगनबाड़ी कर्मियों के संगठन का आरोप है कि सरकार उन आंगनबाड़ी केंद्रों को बंद करने की कोशिश कर रही है जिनमें 25 से कम लाभार्थी हों. सिर्फ महाराष्ट्र में ही बड़े-छोटे मिलाकर 1.07 लाख आंगनबाड़ी केंद्र हैं. इनमें से सभी में कम से कम एक शिक्षक या प्रशासक और एक सहयोगी जरूर हैं. इन सभी की रोजी-रोटी पर खतरा है.
17 जनवरी, 2018 को केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत काम करने वाले 50 लाख से अधिक श्रमिक देशव्यापी हड़ताल पर चले गए. इन लोगों ने पूरे देश में जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन किया. यह हड़ताल सभी 10 केंद्रीय श्रमिक संगठनों के आह्वान पर हुई. भारतीय श्रमिक कांफ्रेंस ने मई, 2013 में यह सिफारिश की थी कि केंद्रीय योजनाओं के वाॅलिंटियर्स को श्रमिक का दर्जा देकर उनकी न्यूनतम मजदूरी और पेंशन की व्यवस्था की जानी चाहिए. लेकिन सरकार ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया. हाल में हड़ताल करने वाले इन श्रमिकों की मांग में इस सिफारिश को स्वीकार करना और उन्हें कर्मचारी भविष्य निधि जैसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों शामिल करने की मांग शामिल है. इन लोगों की यह मांग भी है कि कल्याणकारी योजनाओं पर आवंटन बढ़ाया भी जाए.
इन लोगों का कहना है कि इनके काम को पर्याप्त महत्व नहीं दिया जा रहा है. इनका यह भी कहना है कि जैसे ‘महिलाओं के काम’ की अनदेखी की जाती है, वैसे ही इनके कामों की भी अनदेखी हो रही है. कल्याणकारी योजनाओं में आवंटन घाटने और निजी क्षेत्रों की बढ़ती भागीदारी से यही लगता है कि मूल क्षेत्रों में सरकार अपनी जिम्मेदारियों से भाग रही है. इन श्रमिकों के संघर्ष को सिर्फ आर्थिक मांग के दायरे में नहीं देखा जाना चाहिए.