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खतरे में आंकड़े?

आधिकारिक आंकड़ों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए सांख्यिकी संस्थानों की स्वायत्ता जरूरी है
 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो स्वतंत्र सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया. इससे सरकारी संस्थानों की स्वायत्ता का सवाल एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ है. यह आयोग 2006 में विश्वसनीय आधिकारिक आंकड़ों के सृजन और इन्हें सार्वजनिक करने के लिए बनाया गया था. इस्तीफा देने वाले सदस्यों का कहना है कि ऐसा नहीं हो पा रहा है. सरकार ने नैशनल सैंपल सर्वे कार्यालय के श्रम बल से संबंधित सर्वेक्षण को सार्वजनिक नहीं किया. यह सर्वेक्षण जुलाई 2017 से जून 2018 की अवधि के दौरान किया गया था. जबकि आयोग ने दिसंबर, 2018 में ही इसे हरी झंडी दे दी थी. इस्तीफा देने वाले सदस्यों ने नीति आयोग की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा है कि नीति आयोग ने राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग को नजरअंदाज करने का काम किया है.
इस तरह का आरोप नीति आयोग पर पहली बार नहीं लगा है. नीति आयोग और केंद्रीस सांख्यिकी संगठन यानी सीएसओ ने नवंबर, 2018 में जीडीपी के पुराने आंकड़े 2011-12 आधार वर्ष पर जारी किया है. इस प्रक्रिया में भी राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की मंजूरी नहीं ली गई. नीति आयोग ने इसकी उपसमिति की रिपोर्ट को भी पलट दिया ताकि पिछले सरकार के मुकाबले इस सरकार का कामकाज अच्छा दिखे. इस घटना के बाद नीति आयोग और सीएसओ की काफी आलोचना हुई थी.
एनएसएसओ की रिपोर्ट में देश में रोजगार की स्थिति पर विश्वसनीय आंकड़ों की उम्मीद थी. खास तौर पर नोटबंदी और जीएसटी के लागू किए जाने के संदर्भ में. ऐसे में फिर सरकार ने इस रिपोर्ट को क्यों रोका? आम तौर पर अब यह माना जा रहा है कि इस रिपोर्ट से रोजगार से संबंधित सरकार के दावों की पोल खुल सकती है.
 
इसकी पुष्टि कुछ मीडिया रिपोर्ट से होती है. ये खबरें इस रिपोर्ट के लीक होने के बाद मिली सूचनाओं पर आधारित हैं. लीक हुई रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 फीसदी रही. जबकि साप्ताहिक आधार पर बेरोजगारी की दर 8.9 फीसदी है. यह बेहद चिंताजनक है. शहरी क्षेत्रों में ये दोनों आंकड़े क्रमशः 7.8 फीसदी और 9.6 फीसदी है. जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 5.3 फीसदी और 8.5 फीसदी. 15 से 29 साल के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर अपेक्षाकृत अधिक है. श्रम बल भागीदारी दर अपेक्षाकृत कम 36.9 फीसदी है. इससे यह पता चलता है कि बहुत सारे लोग श्रम बाजार से निकल रहे हैं. खास तौर पर महिलाएं. इससे भारत की अर्थव्यवस्था की अच्छी तस्वीर नहीं बनती है.
 
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने अगले लोकसभा चुनावों को देखते हुए इस आंकड़े को मसौदा बताकर इसके बुरे असर को कम करने की कोशिश की है. यह सच हो सकता है कि अभी यह ड्राफ्ट रिपोर्ट ही हो लेकिन इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि इस रिपोर्ट से नौकरियों की बुरी स्थिति सामने आती. एनडीए सरकार द्वारा रोजगार सृजन के दावों की धज्जियां उड़ाने का मौका विपक्ष को मिल जाता. एनडीए ने 2014 के लोकसभा चुनावों में हर साल एक करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था. लेकिन इन आंकड़ों के प्रकाशन से यह पता चलता कि रोजगार के मोर्चे पर पिछले 45 साल में सबसे बुरी स्थिति में देश है. केंद्र सरकार को लगता है कि इस आंकड़े को प्रकाशित करना जोखिम भरा है. चुनावों से पहले इन आंकड़ों का सामने आना सरकार को काफी नुकसान पहुंचा सकता है.
 
बेरोजगारी पर इस रिपोर्ट का इस्तेमाल अच्छी राजनीति और आर्थिक विश्लेषण में हो सकता है. इससे सत्ताधारी वर्ग को सूचनाओं पर आधारित नीतियों के निर्माण में मदद मिलती. इससे निवेशकों और कारोबारियों को भी योजना बनाने में मदद मिलती. लेकिन यह तय है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग को दरकिनार करके नीति आयोग ने इस संस्था की स्वायत्ता को तार-तार कर दिया है और इससे आधिकारिक आंकड़ों की विश्वसनीयता को भी नुकसान पहुंचा है.
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