हाशिये के लोगों के अनुकूलन की संभावनाएं
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राजनीतिक हाशिये पर पड़े लोगों को लेकर चुनावी राजनीति में जो बात चलती है, वह अंतर्विरोधों से भरी है। संसदीय लोकतंत्र के बचाव में जो सैद्धांतिक कारण दिए जाते हैं, उसमें हाशिये के लोगों के लिए बात करना बेतुका लगने लगता है। संसदीय लोकतंत्र में बदलाव का सिद्धांत है। इसमें यह अपेक्षित होता है कि सांस्थानिक ताकत एक हाथ से दूसरे हाथ में जाए। इससे हाशिये पर पड़े लोग कभी सत्ता के केंद्र में आते हैं तो सत्ता में बैठे लोग कभी पीछे चले जाते हैं। लोकतंत्र का इस चुनावी पक्ष में से इन बदलावों को अंजाम देने की अपेक्षा की जाती है। इसके बावजूद भारतीय लोकतंत्र ने हाशिये के लोगों को बचाए रखा है। इसमें सत्ता के केंद्र में जो है, वह अगले कुछ सालों तक इसी स्थिति में रहता हुआ दिख रहा है।
अभी राजनीति भारतीय जनता पार्टी के आस-पास घूम रही है। भाजपा ही राजनीतिक विमर्श का एजेंडा तय कर रही है। यह साफ दिख रहा है कि विपक्ष सिर्फ प्रतिक्रियावादी ताकत बनकर रह गई है। इसमें छोटे दल और हाशिये के दल दो तरह से काम करते हुए दिख रहे हैं। ये दोनों अलग दिखते हुए भी एक ही हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा के सहयोगी के तौर पर शामिल छोटे दलों ने तो खुद को सत्ता के केंद्र में आने और स्वतंत्र तौर पर अपनी बात रखने की क्षमता हासिल करने की कोशिशें ही छोड़ दी हैं। जो दल हाशिये के लोगों की नुमाइंदगी का दावा करते हैं, वे खुद को राज्य विशेष की पार्टी मानकर खुश हैं। ऐसे में इन दलों के बारे में यह सवाल उठता है कि क्या ये हाशिये की पार्टियां हैं? चुनावी राजनीति के संदर्भ में देखा जाए तो ये जरूर हाशिये की पार्टियां दिखती हैं लेकिन अगर ठोस राजनीति के संदर्भ में देखें तो उन्हें सत्ता के केंद्र में होना चाहिए था। केंद्र में होने का लाभ समझना हो तो ज्योतिराव फूले और बीआर आंबेडकर के योगदान को याद करना चाहिए। इन चिंतकों के विचारों के आधार पर हाशिये की पार्टियां हाशिये के लोगों को राजनीति को सही दिशा दे सकती हैं। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि समाज के अमीर तबके का फूले और आंबेडकर के विचारों से कोई लेना-देना नहीं है। इन परिस्थितियों में चुनावी राजनीति में भी हाशिये से केंद्र की ओर बढ़ना आसान है। हालांकि, इस कोशिश में आधिपत्य वाली ताकतों की ओर से विरोध होगा। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि ये पार्टियां राज्य स्तर पर प्रासंगिक बने रहने में ही संतुष्ट हैं।
हाशिये के लोगों का अनुकूलन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कई स्तर पर प्रयास करने की जरूरत है। इस कार्य में लगे कई नेता हाशिये के अलग-अलग समूहों को गोलबंद करने की कोशिश करते हैं। इस वजह से भारत में दलित राजनीति और अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति में एक समूह के अंदर और अलग-अलग समूहों के बीच गोलबंदी दिखती है। आधिपत्य वाले दल अपनी ओर से यह ताकत लगाते हैं कि हाशिये की पार्टियां हाशिये पर ही रहें। इस प्रक्रिया में इन दलों के नेता हाशिये के लोगों के समावेशन की कोशिश करते हुए भी अपनी पहचान को जस का तस बनाए रखते हैं। ऐसे दल इन कोशिशों के जरिए राजनीति को सार्वभौमिक बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह सिर्फ कहने के लिए होता है। आधिपत्य वाले समूहों में यह क्षमता होनी चाहिए कि ऐसे दलों को कहने के लिए या आंशिक तौर पर वे जगह दें। लेकिन राजनीतिक आधिपत्य के जो तर्क हैं और जिन पर चुनावी लोकतंत्र के पैतरे हावी हो जाते हैं, वे हाशिये से उठने वाली हर आवाज को दबाना चाहते हैं। ऐसे में यह एक विडंबना है कि ये पार्टियां हाशिये के लोगों के विचार और संख्या की मजबूती पर ध्यान नहीं दे रहे हैं और खुद को सत्ता के केंद्र में ले जाने की स्थिति में नहीं हैं।