भारत के अपराध आंकड़ों से जुड़े विवाद
आपराधिक आंकड़ों को प्रामाणिक बनाने के लिए हमें क्या जानने की जरूरत है?
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राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों पर देश में हमेशा से संदेह किया जाता है। 1990 के बाद से जब आपराधिक गतिविधियों में कमी के आंकड़े आने लगे तब से इन पर और संदेह होता है। 2017 के आंकड़े अभी आए हैं और लोगों का संदेह और बढ़ा है। पहली बात तो यह कि रिपोर्ट जारी करने के समय को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। क्योंकि यह रिपोर्ट पारंपरिक ढंग से 2017 में ही जारी होनी चाहिए थी। दूसरी बात यह कि इससे संबंधित सूचना के अधिकार के आवेदनों का सही ढंग से जवाब नहीं दिया गया। तीसरी बात यह कि 2010 के मुकाबले 2017 में अपराधों में जो 33 प्रतिशत की कमी दिखाई गई है, उस पर लोगों को यकीन नहीं हो रहा है। क्योंकि इस कमी को परिलक्षित करने वाली स्थितियां न तो आर्थिक तौर पर दिख रही है और न ही अन्य स्तर पर।
भारत में आपराधिक घटनाओं में कमी दूसरे औद्योगिक देशों में आई कमी के हिसाब से ही होते आए हैं। हालांकि, इन आंकड़ों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी जैसे अन्य स्रोतों से आने वाले आंकड़े भी इन सवालों का दायरा बढ़ा रहे हैं। भारत में इन आंकड़ों को सही साबित करने वाले कोई वैकल्पिक मानक नहीं हैं।
हालांकि, भारत में अपराधों में आई कमी को सुरक्षा बाजार के आंकड़ों के जरिए भी समझा जा सकता है। भारत में यह बाजार 2017 से 2023 के बीच 32 फीसदी की दर से बढ़ने का अनुमान है। 2020 तक यह 2.4 अरब डाॅलर का हो जाएगा। लेकिन इस आधार पर इन आंकड़ों की व्याख्या से संबंधित कई जोखिम हैं। पहली बात तो यह कि इसमें गैर तकनीकी अपराधों जैसे चोरी, छिनाछोरी, कार चोरी और अन्य छोटे अपराधों पर कोई आंकड़ा नहीं है। जबकि नए तरह के साईबर अपराध इसमें शामिल हैं। जबकि एनसीआरबी की रिपोर्ट में साइबर अपराधों की काफी कम संख्या प्रक्रियागत खामियों की ओर इशारा करती है। दूसरी बात यह कि अगर तकनीक आधारित व्यवस्था से हिंसक अपराध कम होते हैं तो फिर वंचित समुदाय के प्रति ऐसे अपराध कम क्यों नहीं हो रहे हैं? महिलाओं, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ ऐसे मामले क्यों बढ़ रहे हैं। भीड़ द्वारा की जानी वाली हत्याओं को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए था।
भीड़ द्वारा की जाने वाली हत्याओं से संबंधित आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सरकार के दावों को खारिज करना किसी के लिए भी आसान नहीं है। क्योंकि ऐसे मामलों को लेकर कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। एनसीआरबी के आंकड़ों में ‘राष्ट्र विरोधी तत्वों के अपराध’ को नई श्रेणी के तौर पर शामिल किया गया है। जबकि ऐसे मामलों की कोई औपचारिक परिभाषा नहीं है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अपराध के आधिकारिक आंकड़े भारत में राजनीति से प्रभावित रहते हैं।
इस संदर्भ में भारत के आंकड़ों की विश्वसनीयता को लेेकर संदेह होना स्वाभाविक है। क्योंकि इसमें सही मानकों का भी अभाव है। ऐसे में अपराध को कम करके दिखाने के कई फायदे भी हैं। आम लोग भी इस बात पर यकीन नहीं करते कि अपराध में इतनी कमी आई है। हम इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि अपराध का एक सामाजिक-आर्थिक आयाम भी है। आबादी को लेकर जो बदलाव हो रहे हैं, उससे भी अपराध दर पर फर्क पड़ता है। अगर हम अपराध के आंकड़ों को सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप का जरिया भर समझेंगे तो हम गवर्नेंस के विभिन्न आयामों को हम नजरअंदाज करेंगे।
आपराधिक आंकड़ों को कम करने को ही अगर हम बेहतर प्रदर्शन मानेंगे तो हम प्रशासन में एक गलत तरह की मानसिकता को बढ़ावा देंगे। क्योंकि इससे इस तरह की प्रवृत्ति आगे भी बढ़ेगी। पहली बात तो यह है कि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे विश्वसनीय आंकड़े सामने लाए जिसके आधार पर प्रभावी नीतियां बन सकें। वहीं दूसरी बात यह कि इन आंकड़ों की गुणवत्ता पर यह निर्भर करता है समस्या के समाधान के लिए किस तरह के निर्णय लिए जाएंगे। इसलिए एक तरफ तो वैकल्पिक आंकड़ों की जरूरत है लेकिन दूसरी तरफ यह समझने की भी जरूरत है स्थितियां सिर्फ खराब नहीं हैं बल्कि इन्हें बताने के लिए जो आंकड़े हैं, वे भी खराब स्थिति में हैं।