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आलू पर विवाद

पेप्सीको द्वारा मुकदमा वापस लिया जाना पक्षपाती मंसूबों की कामयाबी को दिखाता है न कि किसानों की जीत को

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

गुजरात में आलू की एक खास किस्म किसानों द्वारा उपजाने पर पेप्सीको ने उन किसानों पर मुकदमा किया। इसके बाद जो विवाद हुआ उससे पता चलता है किसी मसले से सिर्फ ‘किसान’ शब्द जुड़े होने से कोई भी मुद्दा इस देश में नैतिकता के स्तर पर काफी बड़ा बन जाता है। यह इसलिए भी स्वाभाविक हो जाता है क्योंकि देश की आधी से अधिक जीवन यापन के लिए कृषि पर निर्भर है। जिसमें उत्पादन और आमदनी को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। ऐसे में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के तिकड़मों की अनदेखी नहीं की जा सकती। लेकिन तार्किक ढंग से देखने पर मामला अलग नजर आता है। इसमें हमें सरकारों की भूमिका को भी देखना होगा जिसने कृषि को समावेशी नहीं छोड़ा।

कानून से परे हटकर कुछ बुनियादी मसलों को समझना चाहिए। यहां आम धारणा यह है कि एक बड़ी कंपनी किसानों को एक खास किस्म उपजाने से रोकने की कोशिश कर रही है। लेकिन यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि किसान ऐसी किस्म क्यों उपजाना चाहते हैं जिसके खरीदार उनके आसपास में नहीं हैं और जिस पर बाजार की कई पाबंदियां हैं?

पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पेप्सीको के साथ मिलकर आलू उपजा रहे हैं, उनका कहना है कि उत्पादन लागत अधिक होती है जबकि उत्पादकता कम होती है। खास तौर पर पारंपरिक फसल के मुकाबले। इनका कंपनी के साथ आलू खरीदारी का समझौता जरूरत होता है लेकिन कंपनी ‘गुणवत्ता’ के अपने पैमानों की बात कहकर खरीदने से मना भी कर देती है। पहले से तय दर भी इन्हें बाजार मूल्य के मुकाबले अधिक नहीं मिलते।

पश्चिम बंगाल कोल्ड स्टोरेज संघ के अनुमानों के मुताबिक पेप्सीको के साथ आपूर्ति समझौता करने वाले किसानों की संख्या पिछले एक दशक में सात गुना बढ़ गई है। ये तथ्य जमीनी सच्चाइयों को बता रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है कि किसानों के सामने मार्केटिंग के अवसर कितने कम हैं और इस वजह से वे आमदनी से अधिक ‘निश्चितता’ को तरजीह दे रहे हैं।

पिछले तीन दशक में आलू के उत्पादन में 227 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 1988-89 में जहां 1.486 करोड़ टन उत्पादन होता था। 2017-18 में यह बढ़कर 4.86 करोड़ टन हो गया। जबकि प्रति व्यक्ति खपत में सिर्फ 22 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। 1987-88 में प्रति व्यक्ति खपत 14 किलो थी। जो 2016-17 में बढ़कर 17 किलो हो गई। इस हिसाब से देखें तो भारत के 133 करोड़ लोगों की जरूरतें देश के कुल आलू उत्पादन के आधे से पूरी हो जा रही हैं।

आपूर्ति प्रबंधन की दिक्कतें इस वजह से भी बढ़ जाती हैं कि न तो बाजार संबंधित सूचनाएं उपलब्ध हैं और न ही कोल्ड स्टोरेज जैसा पर्याप्त बुनियादी ढांचा। अभी देश के कोल्ड स्टोरेज की क्षमता कुल उत्पादन के 70 फीसदी के लिए ही है। लेकिन वह भी तब जब सबमें सिर्फ आलू भर दिया जाए। कोल्ड स्टोरेज सब्सिडी को 20 फीसदी से बढ़ाकर 40 फीसदी कर दिया गया है। इससे बहुउपयोगी कोल्ड स्टोरेज विकसित हो सकते हैं या फिर नई तकनीक इस्तेमाल किया जाना कम हो सकता है। दोनों ही स्थितियों में छोटे किसानों के लिए इन भंडारों में अपनी उपज रख पाने भर पैसा खर्च कर पाना मुश्किल हो जाएगा।

वहीं दूसरी तरफ बचे हुए 50 फीसदी में सिर्फ छह फीसदी प्रसंस्करण क्षेत्र द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। अप्रैल, 2000 से मार्च, 2017 के बीच देश के खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में 7.54 अरब डाॅलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आया है। इसके बावजूद कृषि के योजित सकल मूल्य में इसका योगदान सिर्फ 8.39 फीसदी है। इससे पता चलता है कि कम मूल्य के उत्पादों का दबदबा है। नीतियां भी इस चीज को बढ़ावा देने वाली हैं। उल्लेखनीय है कि 100 फीसदी एफडीआई का सुधार प्राथमिक प्रसंस्करण पर केंद्रित है वह भी खास तौर पर खुदरा बिक्री के लिए।

आलू प्रसंस्करण क्षेत्र में आधे से अधिक बाजार पर छोटे खिलाड़ियों का दबदबा है। इस वजह से तकनीकी हस्तांतरण, पूंजी निवेश और निश्चित मार्केटिंग सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। वहीं बड़ी कंपनियों के साथ समझौते से ये सुविधाएं तो मिल जाती हैं लेकिन ये कंपनियां मोलभाव करके किसानों को सिर्फ उनकी मजदूरी ही देना चाह रही हैं। लेकिन इसमें भी ध्यान रखने की बात यह है कि एपीएमसी कानून का अपने हिसाब से इस्तेमाल करके कंपनियों के साथ अलग-अलग अनुबंध कराके राज्य सरकारें भी किसानों से पैसे कमाने के खेल की पक्षकार हैं।

ऐसे में पेप्सीको द्वारा मुकदमा वापस लिए जाने को भारत के कानूनों या किसानों की जीत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। मीडिया की खबरों में भी यह आया कि असली किसान इस मामले में शामिल नहीं थे। कंपनी ने स्थानीय खिलाड़ियों के खिलाफ मोर्चा खोलकर अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश की। वहीं सरकार ने अपने रुख के जरिए खुद को ‘किसानों के हमदर्द’ के तौर पर पेश किया। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर देश की कृषि विविधता को नष्ट करने का आरोप लगाया। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकार न तो किसानों को उचित मूल्य दे पा रही है और लगातार कृषि शोध पर होने वाले खर्च को कम करती जा रही है।

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