टेलीविजन समाचार चैनलों की अपनी छवि कैसी है?
भारत के कुछ समाचार चैनल अपने दर्शकों में जंगी राष्ट्रवाद पैदा करने की कोशिश करते हुए दिख रहे हैं
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
भारत-पाकिस्तान सीमा पर तनाव की स्थिति में प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया में एक पार्टी के हिसाब से खबरें दी गईं. इसके बाद कई लोग यह कहते हुए दिखे कि उन्होंने समाचार चैनल देखना बंद कर दिया है. इससे पता चलता है कि इन चैनलों ने लोगों के मन में कितना भय पैदा किया है. इन चैनलों ने हैशटैग का इस्तेमाल करके डर के माहौल को और गहरा करने की कोशिश की. समाचार चैनलों द्वारा हैशटैग इस्तेमाल करने में संपादकीय नैतिकता कहां है? कुछ लोग कह सकते हैं कि हैशटैग से दर्शक जरूरी मुद्दों के प्रति जागरूक रहते हैं. यह तर्क तब सही है जब हैशटैग इस काम के लिए इस्तेमाल किया जाए. लेकिन इन चैनलों ने प्रोपेगेंडा फैलाने के लिए हैशटैग का इस्तेमाल किया है. इसके जरिए ये राजनीतिक संदेश दे रहे हैं, धु्रवीकरण के विमर्श में लोगों को शामिल कर रहे हैं और कटुता वाले विमर्श में लोगों को शामिल करने का काम कर रहे हैं.
इन चैनलों के एंकर बड़ी बेरहमी से उदार सोच रखने वाले लोगों के विचार को दबाते हुए दिखते हैं. ऐसा लगता है कि राष्ट्रवाद की जानकारी सिर्फ इन एंकरों को ही है. दो देशों के बीच संघर्ष की स्थिति को ये इस तरह से पेश करते हैं कि बुनियाद सवालों पर से लोगों का ध्यान हट जाए. इनके हिसाब से समस्या का समाधान आतंकवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ना ही है. इस रवैये से गरीबों, बेरोजगारों, वंचितों और परेशानियों का सामना कर रहे किसानों पर राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता देने का नैतिक दबाव पैदा होता है. अमीर लोग अपनी आराम की जिंदगी में यह दबाव नहीं महसूस करते.
ये एंकर आम लोगों में उम्मीदें पैदा करते हैं. इससे लोग सेना से यह उम्मीद करने लगते हैं कि वह दुश्मन को काफी नुकसान पहुंचाएगी. नुकसानों की जानकारी और मारे गए आतंकवादियों की संख्या जानने की बेचैनी इससे ही पैदा होती है. टीवी बहसों के जरिए सरकार की उस डिजाइन में साथ दिया जा रहा है जिसमें बाहरी आक्रमण का भय दिखाकर देश के अंदर सवाल उठाने वालों का मुंह बंद कराया जा सके.
बदले और आक्रमण का विमर्श आम लोगों में अच्छे से चलता है. राष्ट्रवाद के नाम पर टीवी चैनल और इस तरह के दूसरे वर्ग के लोग आक्रामक ढंग से सरकार द्वारा बदला लिए जाने को सबसे अधिक महत्व देने लगते हैं. इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर सरकार की सोच का समर्थन देने का माहौल बनता है.
इस तरह के चैनल समाज के आंतरिक ताने-बाने पर भी असर डालते हैं. क्योंकि शांति के समय में जनता अपना गुस्सा निकालने के लिए देश के अंदर ही तरीके निकालती है. इसलिए सीमा पर दुश्मन की मौजूदगी एक स्थायी जरूरत बन जाती है. टीवी चैनल जिस तरह से युद्ध का माहौल बना रहे हैं उससे यह सवाल उठता है कि वे खुद को किस तरह से देखते हैं. वे खुद को बगैर छेड़छाड़ के खबर देने का माध्यम मानते हैं या फिर न्यूजरूम में खबरों का निर्माण करने का स्रोत.
अगर किसी टीवी चैनल की अपने बारे में यह सोच है कि उसे शांति और समरसता के लिए काम करना है तो वह संजीदा बात करने वालों के खिलाफ आक्रामक नहीं होगा और न ही वह नफरत फैलाने का काम करेगा. इन चैनलों को और इनके एंकरों को यह समझना होगा कि ऐसा करने से जनता के बीच उनकी कैसी छवि बन रही है. उन्हें जिम्मेदारी का रवैया दिखाना होगा जिसमें नफरत से आजादी की बात हो और समरता के साथ राष्ट्रीय संप्रभुता की बात की जाए. समाचार चैनलों की यह जिम्मेदारी है कि वे लोगों को सामाजिक बुराइयों के प्रति लोगों को जागरूक बनाएं.
अब यह स्पष्ट हो गया है कि इन चैनलों में खुद को लेकर बनी अवधारणा और खुद की अभिव्यक्ति को लेकर फर्क पैदा हो गया है. इसके दो आयाम हैं. पहली बात तो यह है कि इन पर रेटिंग प्वाइंट्स और विज्ञापनों के लिए दबाव होता है और यही इन्हें चलाए रखता है. वहीं दूसरी बात यह है कि वे अति-आत्मविश्वास के शिकार हैं. कई एंकरों ने खुद से अपने कामों के बारे में सवाल करने की अपनी नैतिक क्षमता खो दी है. यह क्षमता उन्हें खुद को सरकार से अलग करके देखने में मदद करती. लेकिन कुछ टीवी चैनलों को देखकर ऐसा लगता है कि इससे चैनलों और सरकार दोनों पक्षों को फायदा है.