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मालदीव में दखल

अमेरिका और भारत की दीर्घावधि की योजना यह लगती है कि हिंद महासागर उनकी नियंत्रण में हो

 

The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.

 

मालदीव में महीने भर से चल रहे राजनीतिक संकट में भारत और अमेरिका की भूमिका को देखकर राजनीतिक तौर पर बिल्कुल अनजान व्यक्ति ही यह कह सकता है कि इन दोनों देशों को मालदीव के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की चिंता है. मालदीव के पास से ही भारत, जापान, चीन और पूर्वी व दक्षिण एशियाई देशों में तेल ले जाने वाले जहाज गुजरते हैं. इन देशों से होने वाले निर्यात का बड़ा हिस्सा भी मालदीव के पास से गुजरता हुआ पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप के बाजारों में जाता है. भारत और अमेरिका नहीं चालते थे कि मालदीव चीन की महत्वकांक्षी वन बेल्ट, वन रोड परियोजना का हिस्सा बने. लेकिन मालदीव इसका हिस्सा बना. मालदीव ने चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता भी किया.

 

5 फरवरी को मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन ने 15 दिन के आपातकाल की घोषणा की. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की गिरफ्तारी के भी आदेश दिए. इन जजों ने एक फरवरी को यह आदेश दिया था कि विपक्षी सांसदों को रिहा किया जाए. इनमें पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद और विपक्ष के कुछ और प्रमुख नेता शामिल हैं. श्रीलंका में निर्वासित जीवन जी रहे नशीद ने अगले ही दिन एक उकसाने वाली अपील की. उन्होंने भारत और अमेरिका से मालदीव में सैन्य हस्तक्षेप के जरिए यमीन को हटाने की अपील की. सुप्रीम कोर्ट से जो आदेश आया, वह यमीन के लिए हैरानी वाला था. क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि अदालती फैसला उनके पक्ष में आएगा. लेकिन जजों पर काफी दबाव रहा होगा. क्योंकि भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ वहां के विपक्ष का साथ दे रहे हैं. कोर्ट के आदेश के बाद अगर यमीन के पार्टी से गए लोग और दूसरे लोग मिल जाते तो यमीन के पास संख्या बल नहीं होता और इस साल होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में नशीद की दावेदारी मजबूत हो जाती. इसलिए यमीन ने आपातकाल लगा दिया और सुप्रीम कोर्ट के बाकी जजों से पहले का फैसला बदलवा दिया.

 

भारतीय मीडिया लगातार यह बता रही थी कि भारतीय सेना कभी भी मालदीव में हस्तक्षेप के लिए तैयार है. लेकिन भारत को यह मालूम रहा होगा कि वहां की सेना यमीन के साथ है. चीन भी लगातार यह कहता रहा कि भारत को मालदीव में हस्तक्षेप करके उसकी संप्रभुता को चुनौती नहीं देनी चाहिए. अमेरिका और ब्रिटेन भले ही सैन्य हस्तक्षेप में भारत का साथ दें लेकिन इससे भारत की रणनीतिक स्वायत्ता पर सवाल उठेंगे. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन करके मालदीव संकट पर चर्चा की और अमेरिकी प्रशासन ने इस बातचीत को सार्वजनिक किया. भारत और अमेरिका ने मिलकर श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे के मुकाबले मैत्रिपाला सिरीसेना को खड़ा किया था. राजपक्षे चीन के करीब माने जाते थे. इसी तरह अब ये दोनों देश मालदीव में सत्ता परिवर्तन कराना चाहते हैं. 1988 में भारत ने सैन्य हस्तक्षेप करके वहां के तानाशाही शासक मौमून अब्दुल गयूम के खिलाफ हुए विद्रोह से उन्हें बचाया था. भारत के समर्थन से 2008 तक उनकी तानाशाही सरकार चलती रही.

 

20 फरवरी को भारत और अमेरिका को तब फिर से झटका लगा जब यमीन ने राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर आपातकाल 30 दिनों के लिए और बढ़ा दिया. मीडिया और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा अपने पड़ोस में अपनी पकड़ नहीं ढीली करने के सुझावों के बीच भारत ने धैर्य रखा. एक सुरक्षा विशेषज्ञ ने तो यहां तक पूछा कि अगर भारत अपने पड़ोस में सुरक्षा खतरों को नियंत्रित नहीं कर सकता तो फिर यह वैश्विक ताकत कैसे बन सकता है. मीडिया का एक वर्ग कूटनीतिक हस्तक्षेप और जरूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप के पक्ष में भी दिखता है.

 

लेकिन सरकार में चर्चा इस बात पर चल रही है कि कैसे मालदीव में चीन के प्रभाव का मुकाबला किया जाए. लेकिन मोदी और ट्रंप दोनों एक दूसरे से पूछ रहे होंगे कि यह काम कैसे हो. इन दोनों का बड़ा लक्ष्य हिंद महासागर के जल मार्गों पर नियंत्रण स्थापित करना है. क्योंकि चीन अपने विदेश व्यापार के लिए इसी मार्ग पर निर्भर है. भारत और अमेरिका दोनों मालदीव में अपना सैन्य बेस बनाना चाहते हैं. सेशेल्स और डिएगो में पहले से इनका सैन्य बेस है. इन्हें उम्मीद होगी कि अगर मालदीव में सत्ता परिवर्तन हो जाता है तो ट्रंप प्रशासन मालदीव पर दबाव डालकर ऐसा समझौता करवा लेगा कि जिससे वहां सैन्य बेस बनाने का रास्ता साफ हो जाए.

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