पूर्वाग्रहों का स्थानांतरण
क्या पुलिसकर्मी जाति और समुदाय आधारित सोच से हटकर काम करने के लिए प्रशिक्षित हैं?
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महाराष्ट्र सरकार ने भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी भाग्यश्री नवटके का स्थानांतरण बीड जिले से कहीं और कर दिया है. इस आईपीएस अधिकारी एक वीडियो सामने आया था जिसमें वे यह कह रही थीं कि कैसे उन्होंने मराठा लोगों को बचाने के लिए दलितों और मुसलमानों के खिलाफ फर्जी मुकदमे दर्ज किए थे. नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों का स्थानांतरण एक दंडात्मक कार्रवाई मानी जाती है. लेकिन सरकारें और ताकतवर नेता इस हथियार का इस्तेमाल अपनी सुविधा से करते हैं. कभी इसका इस्तेमाल उनकी बात नहीं मानने वाले अफसरों के खिलाफ होता है तो कभी जनता की मांग को पूरा करने के लिए. नवटके की बातों से दलितों और मुसलमानों के प्रति उनका पूर्वाग्रह झलकता है. इससे घटना से दो सवाल उठते हैं. क्या नवटके के स्थानांतरण से जाति और समुदाय आधारित पूर्वाग्रह कम होता है? प्रशिक्षण मैनुअल होने के बावजूद क्या नौकरशाह और पुलिस अधिकारी अपने पूर्वाग्रहों से परे जाकर काम करने में सक्षम हैं?
यह समझना मुश्किल नहीं है कि दूसरे नौकरशाही संस्थाओं की तरह पुलिस बल भी जाति, समुदाय और पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों से प्रभावित है. पुलिस के बारे में यह भी कहा जाता है कि उसकी सोच महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और आदिवासियों के प्रति बहुत अधिक मर्दवादी और भेदभावपूर्ण है.
सामाजिक-आर्थिक संकेतको के आधार पर महाराष्ट्र को प्रगतिशील माना जाता है. लेकिन इस महिला अधिकारी की बातों से दूसरी ही तस्वीर उभरती है. 2006 की खैरलांजी नरसंहार से लेकर हाल के भीमा-कोरेगांव तक के मामलों में यही दिखता है कि पुलिस समाज के कुछ वर्गों को लेकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है. 2016 में मराठा लोगों ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निषेध कानून, 1989 को खत्म करने के लिए एक यात्रा निकाली थी. उस वक्त भी दलितों के खिलाफ हिंसा की कई शिकायतों को दर्ज नहीं करने का आरोप महाराष्ट्र पुलिस पर लगा था. उत्तर प्रदेश में भी पुलिस एक समुदाय के खिलाफ बेहद सक्रिय दिखती है. फर्जी मुठभेड़, रोमियो दस्ता के जरिए हिंदु-मुस्लिम जोड़ों को परेशान करना, लव जिहाद के तथाकथित मामलों में अति-सक्रियता और गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा पर आंख मूंदना बेहद सामान्य हो गया है. प्रदेश की राजधानी में एक निजी कंपनी के कर्मचारी को पुलिस ने मार दिया और जब उस पुलिसकर्मी के खिलाफ कार्रवाई तो प्रदेश के पुलिसकर्मियों ने काली पट्टी बांधकर विरोध किया. हाशिमपुरा मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश पुलिस के बारे में कई प्रतिकूल टिप्पणियां की थीं. यह फैसला पुलिस द्वारा 42 मुस्लिमों की हत्या के 31 साल बाद आया था. अपने फैसले में अदालत ने कहा था कि कानून लागू कराने वाली एजेंसियां संस्थागत पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं.
हर छोटे-बड़े मामले में सबसे अधिक दिखने वाली संस्था पुलिस ही है. आम जनता के बीच इन्हें लगातार काम करना होता है. कई तरह के जनसंपर्क अभियान ऐसे चलाए जाते हैं जिसमें पुलिस को सेवा के लिए तत्पर बताया जाता है. लेकिन आम जनता पुलिस के बारे में क्या सोचती है? भारत जैसे विविधता वाले समाज में काम करने के लिए पुलिस कितनी तैयार है? इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि पूर्वाग्रहों से निपटने के लिए पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण में क्या व्यवस्था की गई है?
पुलिस सुधार को लेकर बात तो लंबे समय से चलती है लेकिन राज्य सरकारें इस पर कुछ करते नहीं दिखतीं. राष्ट्रीय पुलिस समिति ने 1978 में कई सुझाव दिए थे. उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक की जनहित याचिका पर अब भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. जुलिया रिबेरो समिति, पदमनभइया, मलिमथ और सोली सोराबजी समिति भी बनी थी. 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने छह निदेर्श दिए थे. इनमें एक निर्देश यह था कि प्रशिक्षण में पुलिस को भारत जैसे विविधता वाले समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति संवेदनशील बनाया जाए. लेकिन ऐसा लगता है कि प्रशिक्षण इस मामले में नाकाम रहा है.
महाराष्ट्र समेत कई राज्यों ने माॅडल पुलिस कानून पारित करके कुछ सुधार किए हैं. लेकिन सिर्फ इससे बात नहीं बनेगी. पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए लंबे समय तक सतत प्रयास करने होंगे. सबसे जरूरी है कि पुलिस को इन पूर्वाग्रहों से परे हटकर काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाए.