किसान और उनका देश
करोड़ों किसानों को उनकी जरूरत के हिसाब से प्रतिक्रिया देने वाला राष्ट्र चाहिए क्योंकि उन्होंने देश को नहीं छोड़ा
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
पिछले कुछ महीनों में आॅल इंडिया किसान संघर्ष कोआर्डिनेशन कमिटी यानी एआईकेएससीसी ने करीब 200 किसान संगठनों के साथ मिलकर ‘दिल्ली चलो’ के लिए किसानों को एकजुट करने का काम किया है. ये लोग 29-30 नवंबर को दिल्ली पहुंचना चाहते हैं. इनकी मांग यह है कि किसानों की समस्या पर बातचीत के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाए. किसान चाहते हैं कि इस विशेष सत्र में स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की नीति, कृषि बीमा के निजीकरण और कर्ज लेने वाले किसानों के प्रति बैंकों के भेदभावपूर्ण रवैये पर चर्चा हो. किसानों के अनुभव से यह बात आई है कि कुछ बैंकों ने कर्ज वसूली के लिए किसानों के खिलाफ सख्त रुख अपनाया. जबकि इन्हीं बैंकों ने हजारों करोड़ का कर्ज लेने वालों के खिलाफ नरम रुख अपनाया. बड़ी संख्या में किसान इस भेदभाव के शिकार हैं.
किसानों को इस बात पर संदेह है कि एमएसपी उनके अनुकूल काम करता है. लंबे समय से वे यह सवाल उठा रहे हैं कि एमएसपी उन्हें किस हद तक बाजार के उतार-चढ़ाव से मुक्त करता है. किसानों को यह भी लगता है कि नगदी फसलों की बीमा में निजी कंपनियों के दबदबे से कंपनियों को ही फायदा हो रहा है. किसानों को रिमोट सेंसिंग पद्धति के कामकाज पर भी संदेह है. क्योंकि इससे जल भंडारण की सही जानकारी नहीं मिल रही. इन सब वजहों से कृषि संकट गहरा गया है और तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है.
इस परिप्रेक्ष्य में किसानों की गोलबंदी इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करा रही है. यह गोलबंदी सरकार के सामने लोकतांत्रिक बातचीत का अवसर भी पेश करती है. यह कहा जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में किसानों की समस्याओं को खास तरजीह नहीं दिया गया है. प्रिंट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया में दिए जाने वाले विज्ञापनों में कृषि क्षेत्र की उपलब्धियों को जिस ग्लैमरस ढंग से पेश किया जाता है, वह किसानों की समस्याओं का मजाक उड़ाने वाला मालूम पड़ता है.
ऐसे में इस बात की वजह तलाश पाना कठिन नहीं है कि आखिर क्यों इस मसले पर संसद में बात नहीं करना चाहती. क्योंकि इससे इस संकट की जिम्मेदारी सरकार को लेनी पड़ेगी. यह बात सामने आ जाएगी कि काॅरपोरेट समूहों के हितों के हिसाब से सरकार ने जानबूझकर कृषि को बर्बाद होने दिया.
किसानों की यह गोलबंदी कई मामलों में अहम है. सबसे पहली बात तो यह कि यह शरद जोशी की अगुवाई वाले शेतकारी संगठन के किसान आंदोलन से अलग है. उस आंदोलन ने लोगों के इंडिया और भारत की तुलना के आधार पर गोलबंद करने की कोशिश की थी. जोशी कहते आए हैं कि किसानों की कीमत पर शहरी मध्य वर्ग को फायदा पहुंचाया गया. जबकि एआईकेएससीसी के आंदोलन ने इससे आगे बढ़कर शहरी मध्य वर्ग का समर्थन हासिल किया. इस नए आंदोलन को छात्रों, कलाकारों, फिल्म बनाने वालों, तकनीकी विशेषज्ञों और आईटी पेशेवरों और बैंक कर्मचारियों का समर्थन हासिल है. मार्च, 2018 में नासिक से मुंबई के बीच किसानों का जो मार्च हुआ, उससे यह बात साबित हुई.
दूसरी बात यह कि विशेष सत्र बुलाने की मांग बिल्कुल उचित है. किसान यह चाहते हैं कि सरकार को एक मौका मिले ताकि वह अपने दावों को सच या झूठ साबित कर सके. तीसरी बात यह कि किसानों ने इस संकट की पृष्ठभूमि मुहैया कराने का काम किया है जिसके आधार पर बातचीत आगे बढ़ाई जा सकती है.
किसानों ने सरकार और जनता को यह संदेश देने की कोशिश की है कि यह देश सांकेतिक तौर पर ही है जबकि वास्तविकता में यह देश काॅरपोरेट घरानों का है. इस बात का सबूत इससे भी मिलता है कि जमीन, जल, जंगल और खनिजों का निजीकरण हो रहा है. निजी कंपनियां कृषि पर अपना नियंत्रण मजबूत करती जा रही हैं. वित्त, बीज, बीमा, खाद और बाजार पर निजी कंपनियों की पकड़ मजबूत हो रही है. किसानों का यह आंदोलन सत्ता वर्ग को यह संदेश देने की कोशिश है कि किसानों की भी एक अहमियत है और ऐसी परिस्थितियां खत्म होनी चाहिए जिसमें एक किसान को जान देने का निर्णय लेना पड़ता है. ऐसे में संसद की एक विशेष सत्र की मांग कृषि संकट के लिए सरकार की जिम्मेदारी तय करने से संबंधित है.