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कश्मीर की सिमटती चुनावी संभावनाएं

जम्मू कश्मीर में हुए स्थानीय चुनाव मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के अनुकूल नहीं रहे

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रेखा चौधरी
 
जम्मू कश्मीर में हाल ही में हुए शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों ने यह साबित किया कि कश्मीर घाटी में लोकतांत्रिक संभावनाएं सिमट रही हैं. 2002 के विधानसभा चुनावों से जिस तरह की संभावनाएं जगी थीं, वे हाल के सालों में कमजोर पड़ी हैं.
कुल 79 शहरी निकायों के लिए मतदान हुए. इसमें 35 प्रतिशत मतदान हुए. जम्मू और लद्दाख क्षेत्र में मत प्रतिशत अधिक रहा. कश्मीर घाटी में चुनाव पूरी तरह से खारिज किए गए. वहां सबसे अधिक 8.3 फीसदी मतदान पहले चरण में हुआ. दूसरे चरण में 3.4 फीसदी, तीसरी चरण में 3.49 फीसदी और चौथे चरण में 4 फीसदी मतदान हुआ. चुनावी प्रक्रिया को खारिज किया जाना चुनावों के पहले ही स्पष्ट हो गया था क्योंकि चुनाव लड़ने वाले नामांकन ही नहीं दाखिल कर रहे थे. बड़ी संख्या में ऐसे वार्ड रहे जहां या तो कोई भी उम्मीदवार नहीं था या सिर्फ एक उम्मीदवार था. कश्मीर के कुल 598 वार्ड में से सिर्फ 186 में मतदान हुआ. 231 वार्ड में उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए. वहीं 181 वार्ड में एक भी उम्मीदवार नहीं था. कुल 412 वार्ड ऐसे थे जहां मतदान हुआ ही नहीं. अलगाववादियों और आतंकवादियों ने चुनाव बहिष्कार का आह्वान किया था. जहां चुनाव हुए भी, वहां चुनाव प्रचार नहीं हुआ. कई जगह तो उम्मीदवारों की सुरक्षा को देखते हुए उनका नाम गोपनीय रखा गया और लोगों को पता तक नहीं चला कि उनका उम्मीदवार कौन है.
 
इस बार के चुनावों ने 1989 के बाद के आतंकवाद के दौर के चुनावों की याद दिला दी. उस दौर में भी मुख्यधारा की राजनीति ढह गई थी और उसे कोई वैधता हासिल नहीं थी. 1989 के संसदीय चुनाव में सिर्फ पांच फीसदी लोगों ने वोट डाले थे. 1996 के विधानसभा चुनावों में मत प्रतिशत बढ़ा लेकिन यह माना गया कि सुरक्षा बलों की भारी तैनाती के जरिए लोगों को वोट डालने के लिए मजबूर किया गया. 2001 के स्थानीय चुनाव भी विवादास्पद रहे. क्योंकि बड़ी संख्या वैसे चुनाव क्षेत्रों की थी जहां एक भी उम्मीदवार मैदान में नहीं था.
 
2002 के विधानसभा चुनावों से चुनावी प्रक्रियाओं की विश्वसनीयता बढ़ी. अलगाववादी सक्रिय रहे लेकिन कश्मीर की दो पार्टियों नैशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच प्रतिस्पर्धा दिखी. चुनावों में लोगों की भागीदारी बढ़ी. चुनाव-दर-चुनाव मत प्रतिशत में बढ़ोतरी दिखी. जितना स्थानीय चुनाव होता था, मत प्रतिशत उतना ही अधिक होता था. इसलिए संसदीय चुनाव के मुकाबले विधानसभा चुनावों मंे अधिक उत्साह दिखता था. पंचायत चुनावों में यह उत्साह और अधिक होता था. 2011 के पंचायत चुनावों में 80 फीसदी लोगों ने वोट डाले. आतंकवादियों और अलगाववादियों के बहिष्कार के आह्वान को लोगों ने अस्वीकार कर दिया था. 2008 में अमरनाथ विवाद के बावजूद कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभा चुनावों में 52 फीसदी वोटिंग हुई थी. चार जिलों में तो मत प्रतिशत 60 से अधिक था. 2010 में पांच महीने तक चले अलगाववाद के बावजूद 2011 के चुनावों में लोगों का उत्साह दिखा. 2014 के विधानासभा चुनावों में भी उत्साह बरकरार था. कश्मीर क्षेत्र के कुल 46 विधानसभा क्षेत्रों में से 23 में 60 फीसदी से अधिक मतदान हुआ था, 13 में 70 फीसदी से अधिक और पांच में 80 फीसदी से अधिक लोगों ने वोट डाले थे.
 
इस दौर में कश्मीर के लोगों ने ‘गवर्नेंस की राजनीति’ यानी मुख्यधारा की राजनीति और ‘संघर्ष समाधान की राजनीति’ यानी अलगाववादी राजनीति को अलग करके देखा. ऐसे में अलगाववादी राजनीति भी चलती रही और लोकतांत्रिक संभावनाओं को भी विस्तार मिला. अलगाववाद के दौर में भी लोगों को लगा कि बिजली, सड़क और पानी के लिए चुनावी राजनीति जरूरी है. यही वजह थी कि चुनावी राजनीति को स्वीकार्यता और वैधता मिलती रही. 
अब ऐसा लगता है कि यह दौर खत्म हो गया है. 2014 के आखिरी सफल चुनावी प्रक्रिया के बाद कश्मीर की स्थितियों में काफी बदलाव आया है. खास तौर पर 2016 के अलगाववादी उभार के बाद से. 2017 में श्रीनगर संसदीय सीट के उपचुनाव में ही यह स्थिति दिखने लगी थी. उस चुनाव में सिर्फ आठ फीसदी वोट डाले गए थे. 
 
मुख्यधारा की पार्टियां किस तरह की गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही हैं यह इससे ही स्पष्ट है कि नैशनल कांफ्रेंस और पीडीपी को शहरी निकाय चुनावों का बहिष्कार करना पड़ा. अनुच्छेद-35ए को लेकर जो राजनीतिक अनिश्चितता का माहौल बना है, औपचारिक तौर पर इस वजह से दोनों पार्टियां चुनाव से दूर रहीं. लेकिन असली वजह कश्मीर की जमीनी स्थिति है जो निश्चित तौर पर मुख्यधारा की राजनीति के अनुकूल नहीं है.
 
रेखा चौधरी इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांसड स्टडी, राष्ट्रपति निवास, शिमला की फेलो हैं और उन्होंने जम्मू ऐंड कश्मीरः पाॅलिटिक्स आॅफ आइडेंटिटि ऐंड सेपरेटिज्म पुस्तक 2016 में लिखी है.
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