लचर आजादी
आप कुछ भी बोलने के लिए आजाद हैं, बशर्ते आत सत्ताधारियों की भाषा बोलते हों
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
आलोचना की आजादी सरकार द्वारा दिया गया कोई विशेषाधिकार नहीं है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत यह हर भारतीय का मौलिक अधिकार है. लेकिन अभी केंद्र में जो सरकार है, उसके कुछ लोग ऐसा माहौल बना रहे हैं कि अगर आप उनकी भाषा बोलते हों तो आपको यह आजादी है नहीं तो आप जो चाहे बोल सकते हैं लेकिन खुद को जोखिम में डालकर. अगर आप इस पर आपत्ति करें और कहें कि यह अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है तो कहा जाएगा कि इसका कोई सबूत नहीं है. लेखकों और पत्रकारों की हत्या और आवाज उठाने वालों के खिलाफ मानहानी के मुकदमों को सबूत नहीं माना जाएगा.
हमें यह बताया जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इतने बड़े हिमायती हैं कि वह सोशल मीडिया पर अपने किसी भी फाॅलोअर को ब्लाॅक नहीं करते चाहे वह गौरी लंकेश की हत्या के कुछ ही घंटे बाद उनके खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल क्यों नहीं करता हो. यहां तक की भारतीय जनता पार्टी के कर्नाटक युवा मोर्चा द्वारा इतिहासकार रामचंद्र गुहा को भेजा गया मानहानी का नोटिस भी सबूत नहीं है. यह नोटिस उन्हें इसलिए भेजा गया क्योंकि उन्होंने लंकेश की हत्या के अगले दिन यानी 6 सितंबर को इसके खिलाफ बयान दिया था. उन्होंने वेबसाइट स्क्रोल को कहा था कि संभव है कि लंकेश के हत्यारे उसी संघ परिवार के हों जिसके लोगों ने दाभोलकर, पनसारे और कलबुर्गी की हत्या की थी. नोटिस में कहा गया है कि इससे भाजपा की छवि खराब होगी.
भाजपा के लिए जब ठीक होता वह कुछ भी बोलती है और उसे अभिव्यक्ति के नाम पर सही ठहराती है लेकिन जब गुहा जैसे उसके आलोचक कुछ बोलते हैं तो भाजपा यह लगता है कि ये लोग इस अभिव्यक्ति की आजादी का गलत फायदा उठा रहे हैं. आपराधिक मानहानी एक ऐसा औजार है जिसके जरिए आलोचकों को शांत करने की कोशिश की जाती है. दूसरा औजार है भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए. इसके तहत राजद्रोह का मुकदमा बनता है. वेबसाइट द हूट के मुताबिक 2014 से 2016 के बीच राजद्रोह के मुकदमों की संख्या शून्य से बढ़कर 11 हो गई है. यह संख्या कम भले ही लग रही हो लेकिन राजद्रोह के मुकदमे को लड़ना बेहद मुश्किल काम है. इससे उन लोगों को भी डराया जाता है जो आलोचना कर सकते हैं.
एक हद तक यह रणनीति कारगर भी रही है. हालांकि, कुछ प्रतिबद्ध लोग बोलना जारी रखते हैं. इनमें जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ छात्र हैं जिन पर पिछले साल राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था. यह उम्मीद करना बेमानी है कि अभिव्यक्ति की आजादी के मसले पर लोग सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने उतर जाएंगे. क्योंकि इस अधिकार को सुनिश्चित मानकर तब तक चला जाता है जब तक आप व्यक्तिगत तौर पर प्रभावित नहीं हों. इसलिए इसे लेकर बेचैनी छात्रों, लेखकों, पत्रकारों और बौद्धिक वर्ग में सीमित दिखती है. जून में दिल्ली के पास 16 साल के जुनैद की हत्या के बाद जिस तरह का विरोध प्रदर्शन हुआ उससे पता चलता है कि ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो हिल गए हैं. गौरी लंकेश की हत्या के बाद भी सैंकड़ों की संख्या में पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किए.
भाजपा को यह लगता है कि रामचंद्र गुहा जैसे लोगों के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाने से उसके समर्थक गोलबंद होंगे. खास तौर पर तब जब कर्नाटक में अगले कुछ महीने में चुनाव होने हैं. पार्टी को यह लगता है कि सोशल मीडिया पर मचे हल्ले और टीवी पर प्रधानमंत्री से कुछ लोगों को सोशल मीडिया पर ब्लाॅक करने की मांग से उसे कुछ होने वाला नहीं है.
आजादी का मतलब समझाते हुए रोजा लग्जमबर्ग ने जो कहा था, वह अभी भारत के लिए बेहद प्रासंगिक है. उन्होंने कहा था, ‘आजादी का मतलब उसकी आजादी है जो अलग ढंग से सोचता है. इसलिए नहीं कि न्याय की कोई उन्मादी अवधारणा है इसके पीछे बल्कि इसलिए क्योंकि राजनीतिक आजादी इसमें ही निहित है. इसका प्रभाव तब खत्म हो जाता है जब स्वतंत्र कुछ लोगों का विशेषाधिकार बन जाती है.’ भारत में अभी यही दिख रहा है कि आजादी कुछ लोगों का विशेषाधिकार है और कुछ लोगों को इससे वंचित किया जा रहा है. बदले में वंचित करने वाले खुद स्वतंत्रता और लोकतंत्र का गुणगान कर रहे हैं.