नक्सलबाड़ी और उसके बादः एक अपूर्ण इतिहास
भारतीय पूंजीवाद की अतार्किकता, निर्ममता और अमानवीयता पर क्या विश्वास, प्यार और उम्मीद हावी हो पाएगा?
The translations of EPW Editorials have been made possible by a generous grant from the H T Parekh Foundation, Mumbai. The translations of English-language Editorials into other languages spoken in India is an attempt to engage with a wider, more diverse audience. In case of any discrepancy in the translation, the English-language original will prevail.
बर्नार्ड डिमेलो
1947 में हुए सत्ता हस्तांतरण के बाद भारत के नए सत्ताधीशों ने अपना असली रंग 1948 में तब दिखाया जब तेलंगाना में सेना भेजी गई. दूसरे कई लक्ष्यों के साथ इसका एक मकसद यह भी था कि अर्द्ध-सामंतवादियों के खिलाफ किसानों का जो वामपंथी आंदोलन चल रहा था, वह भी खत्म हो सके. सच्चाई तो यह है कि भारतीय सेना ने तेलंगाना में अर्द्ध-सामंतवाद को बढ़ावा दिया. तब से लेकर अब तक लाखों भारतीय पूंजीपतियों की अतार्किकता, निर्ममता और अमानवीयता के शिकार हुए हैं. ऐसे में किसी को इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पिछले 50 सालों में नक्सलियों ने हमेशा यह बात उठाई कि भारत के दमनकारी सामाजिक ढांचे में बदलाव की जरूरत है.
50 साल पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माॅक्र्ससिस्ट) से माओवादी विचार रखने वाले 1964 में अलग हो गए और 1967 में उत्तरी बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी से हथियारबंद आंदोलन की शुरुआत की. हालांकि, उसी साल जुलाई मध्य तक उनका दमन कर दिया गया. इसके बाद कमान संभाली चारू मजूमदार ने. वे बाद में नक्सल आंदोलन का नेतृत्व करने वाली नई पार्टी सीपीआई (माॅक्र्ससिस्ट-लेनिनिस्ट) के महासचिव बने. उन्होंने कहा था, ‘हजारों नक्सलबाड़ी देश में सुलग रहे हैं. नक्सलबाड़ी कभी खत्म नहीं हुआ और न कभी खत्म होगा.’ बाद में पता चला कि वे जो कह रहे थे वह दिवास्वप्न नहीं था. नक्सल आंदोलन को नई गति मिली. 1968 से 1972 के बीच देश में कई नक्सलाबाड़ी दिखने लगे. इनमें आंध्र प्रदेश श्रीकाकुलम और बिहार के भोजपुर बेहद अहम थे. लेकिन इन्हें भी सरकारों ने कुचल दिया.
लेकिन भरोसे, प्यार और उम्मीद पर टिका यह आंदोलन चलता रहा और आंदोलनकारी जान गंवाकर भी इसमें सक्रिय रहे. वे गरीबों पर हो रहे अत्याचारों और अन्यायों के खिलाफ चुप बैठने को तैयार नहीं थे. 60 और 70 के दशक में भले ही ये क्रांतिकारी कामयाब नहीं हुआ हों लेकिन जो मुद्दे ये उठा रहे थे, वे बने रहे. इस वजह से आंदोलन फिर से मजबूत होने लगा और उसे बौद्धिक वर्ग का भी समर्थन मिलने लगा.
1977 से 2003 के बीच नक्सल आंदोलन का दूसरा चरण चला. इस दौरान जनसंगठन बने और जन संघर्ष हुए. खास तौर पर उत्तरी तेलंगाना और पुराने आंध्र प्रदेश के दूसरे हिस्सों में. इसके अलावा मध्य और दक्षिण बिहार में. दक्षिण बिहार का बड़ा हिस्सा अब झारखंड में है. चार राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और ओडिशा की सीमाएं जिन इलाकों में सटी हुई हैं उन्हें दंडकारण्य कहा जाता है. इस इलाके में नक्सलवाद बेहद मजबूत हुआ. छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र नक्सलियों का गढ़ के तौर पर उभरा. आत्मरक्षा के लिए हथियारबंद दस्ते बने और गांवों में भी खास दस्ते बने. ‘खेती करने वाले को मिले खेत’ और ‘जंगल का पूरा अधिकार’ जैसे मुद्दे प्रमुखता से उठाए गए.
इस विस्तार को देखते हुए सरकार ने इन्हें खत्म करने के लिए सघन अभियान शुरू कर दिया. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में नक्सलियों के कई प्रमुख नेता मारे गए. इस सदी की शुरुआत में ऐसा लग रहा था कि नक्सल आंदोलन तेजी से बढ़ने वाला है. यह मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने में भी सक्षम दिख रहा था. 1998 और 2004 में अलग-अलग नक्सल समूहों का विलय भी इसी दिशा में बढ़ाया गया एक कदम था.
नक्सल आंदोलन का तीसरा चरण 2004 से शुरू होता है. इसमें बस्तर केंद्र बन गया. यहां दो संगठन प्रमुख तौर पर उभरे. पहला है आदिवासी किसानों का दंडकारण्य आदिवासी किसान मजदूर संगठन. वहीं दूसरा है आदिवासी महिलाओं का क्रांतिकारी आदिवासी महिला संघ. इसके अलावा भूमकल मिलिशिया के नाम से भी एक संगठन सक्रिय है जो पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की सहयोगी है.
आखिर ऐसी क्या वजह है कि पांच दशकों तक क्रांतिकारी गोलबंदी बरकरार रही? अल्पा शाह ने झारखंड में नक्सल आंदोलन पर अध्ययन किया है. वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जिन इलाकों में नक्सल आंदोलन चला, वहां इसका स्थानीय लोगों से गहरा संबंध बना और इसी संबंध की वजह से आंदोलन बढ़ता चला गया. माओवादियों ने सामान्य लोगों और पिछड़ी जाति के लोगों को सम्मान दिया और उन्हें बराबर माना.
तो अब भारतीय माओवादी आंदोलन किधर जा रहा है? सरकार माओवादियों और स्थानीय लोगों के आपसी संबंधों को तोड़ना चाहती है. इसके लिए लोगों की जमीन छिनी जा रही है. सरकार किसी भी कीमत पर माओवादियों को खत्म करना चाहती है. चाहे उसे जिनेवा संधि या अन्य किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते का ही उल्लंघन क्यों न करना पड़े. दूसरी तरफ माओवादी सरकार का उखाड़ फेंकना चाहते हैं. इसके लिए वे हथियारबंद संघर्ष चला रहे हैं, लोगों को गोलबंद कर रहे हैं और नए साझीदार तलाश रहे हैं. हालांकि, अभी की स्थिति में न तो सरकार अपने मंसूबों को पूरा करते दिख रही और न ही नक्सली अपने लक्ष्य को पूरा करते दिख रहे हैं.
विकासशील देशों में सबसे ताकतवर पूंजीवादी सरकार से नक्सलियों का मुकाबला हो रहा है. इस वजह से नक्सल आंदोलन में हथियार और हथियारबंद टुकड़ी का दबदबा बढ़ा है. भारत सरकार भी चाहती है कि यह आंदोलन पूरी तरह से सशस्त्र संघर्ष में सीमित रहे. इस वजह से नक्सल आंदोलन को आगे बढ़ाने में दिक्कतें आ रही हैं. आधार क्षेत्र की कमी की वजह से भी कई तरह की दिक्कतें हो रही हैं. इस वजह से नक्सली अपने विचारों का प्रसार नहीं कर पा रहे हैं. एक संभावना यह है कि आने वाले समय में एक ही साथ अलग-अलग हिस्सों में आंदोलन शुरू हो और अगर ऐसा हो पाता है तो इससे नक्सल आंदोलन को एक नया आयाम मिलेगा.